क्या तेरा था, क्या मेरा है,
खुशियों का तेरे दर पे
बसेरा है,
सोचा मैंने भी, सजा लूँ इन खुशियों को,
पर यहाँ कल भी अँधेरा था, आज भी अँधेरा है।
इस भीड़ में ढूँढता हूँ
मैं,
उस अंजान चेहरे को आस-पास,
पर भूल गया था मैं शायद,
तन्हाइयों ने मुझे हमेशा
ही घेरा है।
ज़िंदगी हसीन है,
और भी हो सकती है,
पर तेरी तरह किसी हाफ़िज़
ने,
मुझ पर कहाँ हाथ फेरा है।
उसके नूर की बारिश में,
भीगना चाहता था मई भी,
पर शायद किसी ने सही कहा
है,
चिराग तले भी कई जगह
अँधेरा है।
उसकी तालिम का असर ही था
शायद,
खुश रहना मैंने भी सीख
लिया था,
पर मेरी ज़िंदगी ही रुखसत
हो गई मुझसे,
मुकद्दर ने भी ये कैसा
खेल खेला है।
लोगों ने कहा मुझसे, ये तेरी ही सोच है,
और तूने ही ज़िंदगी से मुह
मोड़ा है,
पर मैं भी उन्हें कैसे
समझा पाता,
मुझे में मेरा मैं है,
जो कल भी अकेला था और आज भी अकेला है।
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